Tuesday 22 May 2018

पिन्हाँ

  

                                                              ‘उसके शहर में भी ऐसे वाक़यात होते रहते हैं’ | ज़ाहिद ऐसा सोचते हुए अख़बार की सुर्खी से उतर कर ख़बर की समंदर में गोताज़न उस वाक़िये की तह में चलने फिरने लगा | कुछ दूर चलने के बाद उसे अहसास हुआ कि रास्ता कुछ जाना पहचाना सा है शायद आगे चल कर कोई नया मोड़ मिले या किसी ठिकाने पे रुक कर मंज़र-ए-ख़य्याम या आशियाना-ए-आलिम-ओ-शैख़ दिख जाए  | मगर नतीजा सिर्फ़ ये मिला कि क़त्ल वाजीब क़रार दे दिया गया ज़मीनी ख़ुदाओं की ज़ुबान से, उसका जिस ने अपना जींस (लिंग) बदल लिया था |
अख़बार के सफ्हे को पलटते ही ख़्याल भी अपना रंग बदला और सोचने लगा कि अभी जिस वक़्त वो अख़बार सूरज की रौशनी में पढ़ रहा है क्या ये मुमकिन है कि कोई इस सरज़मीन पर चाँद की रौशनी में बैठा यही हादसा सर अंजाम दे रहा हो जो अभी अभी उस ने पढ़ा ? शायद हाँ लेकिन अगर जवाब नहीं में भी हो तो इतना तो मुमकिन है कि जब वो इस वक़्त सूरज की रौशनी में है कहीं कोई चाँद की रौशनी में होगा | इसका मतलब है कि एक ही वक़्त में दो रंग हो सकते हैं, रात और दिन एक वक्त में होना मुमकिन है | जिस तरह एक अख़बार में मौत और ज़िन्दगी दोनों की ख़बरें शाया होती है | तो क्या जींस, मर्द, औरत या मर्द और औरत के अलावा जींस सिर्फ़ एक जिस्म में हो सकते हैं ?
ज़ाहिद इस सोच में महू था लेकिन एक सलाम ने ज़हन पे दस्तक देकर सोच का दरवाज़ा खोला और आँखों को एक चेहरे का तआक़ुब करने पे मजबूर कर दिया | मरयम सामने से गुज़रते हुए सलाम कह गयी थी और ज़ाहिद अपने हाथों में अख़बार लिए उसे देखता रहा कि एक बार मुड़ कर अगर देखे तो सलाम का जवाब दे दे मगर ख़्याल ये सही नहीं निकला | शायद वो जल्दी में थी इसलिए रुकना सही नहीं समझी और ये भी कि सरे राह चाय की दूकान पे एक औरत की मौजूदगी अगर वो चाह कर रुक भी जाए, मर्द किस हद तक अपनी समझ में सही ठहरा सकता है हालाँकि औरत मर्द का कभी भी बावर्ची खाने में आना बुरा नहीं मानेगी | ज़ाहिद आस पास की दुनिया से सोच के दरवाज़े बंद कर के अख़बार पे दोबारा अपनी नज़रें ज़माने के लिए वापस ज़हन के कोह में बैठा तो फिसल कर अख़बार का एक रंगीन सफ़्हा जिस पे आधे कपड़ों में औरतें चिपका दी गई थी ज़मीन पे गिर गया, तमाम हाज़रीन की आंखें गिरे हुए अख़बार पे चिपक गयी | अख़बार उठाते हुए ज़ाहिद फिर से मरयम की सिम्त देखा मगर इस बार मरयम का शौहर सोलमन आता दिखाई दिया | अक्सर शौहर बीवी से या बीवी शौहर से इस क़दर चिपके क्यों होते हैं, इस सवाल ने मन में गुदगुदी पैदा कर दिया मगर ज़ाहिद को ख़ुद से जवाब का न मिलना उस के ज़हन में एक ख़ला छोड़ गया था | सोलमन क़रीब आकर बैठ गया और चाय के लिए गुप्ता जी को आवाज़ दी | ज़ाहिद अख़बार पढ़ने में मसरूफ़ सर उठा कर गुड मोर्निंग किया और फिर अख़बार का सफ़्हा पलट कर पढ़ने लगा | सोलमन उसकी तरफ़ देखा कि शायद वो नज़र उठाए तो जवाब देकर बातों का सिलसिला आगे बढ़ाए मगर सिर्फ़ गुड मोर्निंग पे इत्तेफ़ा करना पड़ा |  
चाय की दूकान जब एक शौर में तब्दील होने लगी तो ज़ाहिद को ये बेहतर लगा कि घर जा कर बच्चों को स्कूल जाने की तैयारी कराई जाए | सदफ़ के बीमार पड़ने के बाद ये ज़िम्मेदारी ज़ाहिद बख़ूबी निभा रहा था | एक प्रोफेसर होने की वजह उस को कभी कभी ये काम नागवार गुज़रता लेकिन साथ ही एक ज़ायक़ा अहसास की आंच पे जला कर मन के कोने पे छोंक लगा जाता जिस से दिल मुअत्तर हो जाता फिर उस की नागवारियाँ जाती रहती |  ज़ाहिद का सुस्त क़दम जब देखा कि मरयम अपने बच्चों को लेकर तेज़ क़दमों से बस स्टॉप की तरफ़ आ रही तो अपनी रफ़्तार बढ़ा लिया | क़रीब से गुज़र रही मरयम ने दरयाफ्त किया “सफ़दर और अज़मत आज देर हो गये, स्कूल नहीं जाएंगे क्या ?”
“हाँ थोड़ी ताखीर से जाएंगे, आज उनके स्कूल में कोई फंक्शन हैं |”
 बच्चों के स्कूल में अगर कोई प्रोग्राम ऐन्क़ाद हो तो वालदैन को ख़ास तौर से माओं को चाय पीने या अख़बार पढ़ने की मोहलत तो ज़रूर मिल जाती है | नहीं माएं अख़बार पढ़ना बेहतर नहीं समझेगी वो आराम कर लेंगी, हाँ लेकिन कुछ माएं अखबार पढ़ लेंगी लेकिन अक्सर वालिद अख़बार और चाय पे ज़रूर अपने वक़्त को लगाएंगे | जैसे किसी बच्चे को अगर छुट्टी मिले तो वो क्रिकेट या फुटबॉल खेलेगा और बच्ची शायद गुड़ियों से खेलना पसंद करेगी लेकिन क्या इसका मुताज़ाद नहीं हो सकता कि कोई बच्चा गुड़िया से खेले या कोई बच्ची क्रिकेट या फुटबॉल | हाँ ऐसा हो सकता है लेकिन हम अपने तसव्वुर को महदूद कर उतना ही सही समझते हैं जितना हमें बताया या समझाया गया है | और अगर उस से एक हर्फ़ के बराबर भी कोई अमल उल्टा सरज़द होता है तो उसे हम सही और ग़लत की तराज़ू में तौल कर फ़ौरन फ़ैसला सुना देते हैं जो कि उस शख्स को बुरा समझने से लेकर मौत तक का फ़ैसला हो सकता है | ज़ाहिद चलते हुए ज़हन के बाग़ में इन सारे मसले पे गौर ओ फ़िक्र कर रहा था |  
“आधा किलो मटर तौल देना ?” सब्ज़ी की टोकरी में गाज़र के रंग को खरोचते हुए ज़ाहिद बोला और फिर भिन्डी को टटोलने लगा | जो सब्जी ऊपर से हरी दिखती है अन्दर से कितनी सफ़ेद होती है | ज़ाहिद कई बार ऐसे लोगों से मिला है जिन को कुछ हादसों के बाद रो कर ख़ुशी हासिल होती है | उसे याद आता है कि एक बार उसने अपनी बहन साजदा के कपड़े पहन कर खूब मस्ती की थी और इस अमल में उसे कुछ बुरा नहीं लगा बल्कि ख़ुशी महसूस हुई थी | तो फिर ऐसा क्यों कि मर्द के कपड़ों में मलबूस मर्द को सिर्फ़ मर्द समझा जाता है या औरत को सिर्फ़ औरत |
ज़ाहिद घर में जब दाख़िल हुआ तो दरवाज़ा ज़रा खुला हुआ था जिस से मालूम पड़ता है यहाँ अभी कोई आया है या कोई बाहर की तरफ़ गया है | आवाज़ देकर अपने वहम को दूर कर लेना बेहतर समझा | “अज़मत, सफ़दर कहाँ है?”
“जी वो वाशरूम में है अब्बू |”
“ये दरवाज़ा फिर किस ने खुला छोड़ दिया ?”
अन्दर दाख़िल होते ही सामने सोफ़े पे मरयम बैठी अख़बार पढ़ रही थी और उसके बराबर में एक थैला था जिस में भिन्डी की हरियाली चमक रही थी | उन में एक ऐसी भिन्डी भी था जो टूटी हुई था जिसके अन्दर की  सफ़ेद दुनिया दिख रही थी |
“मरयम आंटी आई हैं आप से मिलने |”
“आप इतनी जल्दी फ़ारिग़ हो गयी बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ेने से |”
“जी हाँ“
शायद मरयम किसी हादसे को पढ़ने में मशगुल थी इस लिए जवाब लम्बी न हुई और न ही जवाब के बाद गुफ्तगू अपना हाथ पाँव फैलाई | मरयम के इस आदत से आज वो वाकिफ़ हुआ कि अगर वो किसी काम में मशगुल है तो पहले वो उसे पूरा करेगी तो क्या ज़ाहिद के अन्दर एक मरयम है या मरयम के अन्दर एक ज़ाहिद ? शायद दोनों एक दूसरे को एक दूसरे में ढूंढ सकते हैं | तो क्या मर्द में एक औरत मिल सकती है या उसके किरदार का कोई सुर मिल सकता है | इसका जवाब कोई फ़ल्सफ़ी ही देगा | लेकिन ज़ाहिद ये सोचता है कि हर मर्द में एक औरत और हर औरत में एक मर्द होता है | पिछली बार जब ज़ाहिद सोसाइटी की मीटिंग के सिलसिले से सोलमन के घर और लोगों से पहले पहुँच गया था तो मरयम को उसका शौहर सोलमन ने आवाज़ लगा कर चाय बनाने को कहा था | थोड़ी देर बाद वो चाय लेकर आई भी थी | 
अख़बार की सुर्ख़ियों से जब मरयम का सर उठा तो देखती है कि ज़ाहिद एक ट्रे में चाय और नाश्ते के साथ अहिस्ता चलते हुए उसकी तरफ़ बढ़ रहा है |


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