Friday 5 June 2015

बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है

बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है
पहाड़ों पे
और हल्का हल्का जलने लगा है
लिबास उसका
सिसक सिसक के पिघलने लगा है
उसका बदन
किसी ने बंद कमरे में जैसे
बिन पंखे के छोड़ दिया हो
और बाहर खिड़की से
आग के झोंके फूंक रहा हो
सो बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है

कुछ लोग नोच कर लाते हैं उनकी बूटी
और लेबारेट्री में रख कर
पता करते हैं
असबाब उनके रोने का
फिर बताते हैं
दरजा ए हरारत बढ़ गई है धरती की
सो बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है

और बसा लेते हैं वहाँ
उसकी चमड़ी पे कुछ और लेबारेट्री
उसकी हिफाज़त की पहरेदारी में
खुद भी जलाते हैं उनकी चमड़ी
और कहते हैं
बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है

ठीक है उनकी बात
कि कम अज़ कम थोडा ज़ख़्म दे कर
खबर तो करते हैं
मगर उनको कौन भेजा वहाँ ?
वही जो खिड़की पे बैठा
आग झोंक रहा है
वो चाहते हैं
कि लोग पेट कि खातिर भी आग न जलाए
लेकिन उनका भोज चलता रहे
और ये कहते फिरते हैं
अपने अपने चूल्हे बंद कर लो
हमारे साईन्सदानों ने खबर दी है
बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है

उनके साईंसदां कहते हैं
कुछ दिनों बाद
नंगे हो जाएंगे सारे पहाड़
और दोनों पोल भी
तो क्या फ़र्क पड़ता हैं 
इन्सान के साथ वो भी तरक्क़ी कर रहा है
क़दम से क़दम मिला के चल रहा है
होने दो नंगा
हम भी तो नंगा हो रहे हैं
पहाड़ों को किसी सफ़ेद बुर्क़े की ज़रूरत नहीं है
तो फिर किस बात का शोर है
कि बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है

क्या होगा एक ज़रा
आने वाले वाले वक़्त में
आने वाले लोग
पानी पे घर बनाएँगे मगर
मीठे पानी को तरसेंगे
मिटटी उनके अजायब घरों के बोतलों में बंद होगा
पहाड़ पानी से बनाएँगे
लेकिन वो इतना पढेंगे
एक नज़्म में असरार ने कहा था
बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है
पहाड़ों पे
और हल्का हल्का जलने लगा है
लिबास उसका
सिसक सिसक के पिघलने लगा है
उसका बदन
बर्फ को गर्मी पड़ने लगी है

असरारुल हक़ जीलानी 

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