Thursday 12 February 2015

ज़मीन हूँ लफ़्ज़ों की

मेरी साँसें पकने लगीं हैं 
आह गिरने लगीं हैं कट के 
मोहब्बत के दरख़्त से 
राहतें झड़ने लगीं हैं मिट के 
सूखा जाता है ख़्वाब मेरा 
ये कौन सी चाहत की तपिश है 
जो झुलसा दिया है हर सब्ज़ा मेरा 

इश्क़ तो चखा भी नहीं था मैंने 
बस ख़्वाब देखा था 
और काट दी गई सारी डालियाँ 
चाँद तो अाया भी न था छत पे 
बस बुलाया था 
सूरज ने जला दिया आवाज़ मेरी 
उसकी साँस तक पहुँचने से पहले 
अभी तो पर भी न लगाया था मैं ने 
बस चाहा था कि गढ़ दुँगा 
चाँद तारे उसके लिए 
मगर किसी ने आसमाँ जला दिया 

कौशा 
कहाँ तक रखता छुपा कर तुम को 
ज़मीन हूँ लफ़्ज़ों की मैं  
बीज छुपाऊँगा 
पौदा तो निकलेगा ही 
सूखी जाती है हर शाख़ मेरी 
अब साँस दो कि ज़िंदा रहूँ 



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