Tuesday 10 February 2015

कौशा !


कौशा !
जब मैं डायरी के कंधे पे सर रख के सो जाऊ 
और जब तुम देखो 
तो अपनी यादों को आँखों से चूमना 
फिर आहिस्तह से निकाल कर 
डायरी मेरे हाथ से 
रख देना मेरे मेज़ पे 
और उंगलियो में फंसी क़लम को 
मिन्नत से निकाल कर 
दिखा देना कुछ रंग अपने चेहरे का 
फिर रख देना उसी डायरी के बीच 
कि मुझे याद रहे लिखा था रात कुछ 
एक नज़र देखना मेरे सोए हुए चेहरे को 
और कुछ ख़्वाब छिड़क देना 
कुछ बांध देना मेरे पलकों पे 
कि जब भी जागूँ 
सब से पहले 
तेरे ख़्वाब को आज़ाद कर दूँ   

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