Monday 29 September 2014

Poem : मेहरबाँ लगती हो

मेहरबाँ लगती हो

तुम नज़्मों को मेरे याद करती हो
अब तो तुम मेहरबाँ लगती हो 

फैला कर मेरे दाग़ ए दर्द को  
ढूँढती हो उसमें कोई ख़्वाब गिरे पड़े 
चुन चुन कर हर अल्फ़ाज़ को मेरे  
बुनती हो फिर वही ख़्वाब पुराने
जैसे ख़्वाबों की मलका लगती हो  
अब तो तुम मेहरबाँ लगती हो 

मेरे यतीम लफ़्ज़ों को घर ले जा कर 
अपनी आवाज़ का लिबास पहना कर 
ज़ुबान पे रखती हो 
दिलो जां से जानाँ  
मेरे लफ़्ज़ों पे रक़्सां करती हो 
अब तो तुम मेहरबाँ लगती हो 


वो खाली खाली सा दिन अब बाक़ी नहीं रहा 
वो शाम की उलझनें ख़ुदक़शी कर ली है 
हाँ ये अलग बात है कुछ खलिश है अभी 
मगर तख़य्युल में जानाँ 
हमेशा तुम मेरे दरमियाँ लगती हो 
अब तो तुम मेहरबाँ लगती हो 


Sunday 21 September 2014

तू मेहरबाँ होगी

मैंने समझा था कि तू मेहरबां होगी
सेहरा में उलझे मुसाफ़िर का आसरा होगी
तू किसी तरह मनाओगी बहलाओगी
किसी रूठे हुए परिंदे को बुलाओगी
पंख उसके जोड़ोगी सहलाओगी

संवारोगी परवाज़ के हर ख़्वाब को उसके
भर दोगी ललकार से हर ज़ज्बात को उसके
सजाओगी सीलन पड़ी हर दीवार को उसके
टाँग दोगी कहीं पे अपनी हँसी
पिन कर दोगी अपनी मुस्कान मेरे कमीज़ पे

मगर जलता है शबो रोज़ तेरी याद से मेरा
तू कहीं पे छोड़ी कोई निशां होगी
मैंने समझा था कि तू मेहरबां होगी

मगर तू कितनी ज़ालिम है
तुझे बुलाऊँ भी क़रीब तो बहाना मिले
तुझे सुनाऊँ भी कुछ तो रुख़ बेगाना मिले

अपनी ज़मीर को, ख़ुदी को पिघला कर मैंने
तेरे ख़्वाब को ढाला है
नज़्म के रोग को पाला है

हिम्मत को  सुजाअत को बटोर कर मैंने
तेरी क़ुर्बत को अपनाया है
ख़्वाबों में कितनी शिद्दत से चाहा है

मगर तू कितनी ज़ालिम है
एक मुस्कान का भी न सहारा दिया
किसी लफ्ज़ का भी न किनारा दिया

मगर फिर भी में समझता हूँ
एक दिन तू मेरी जानां होगी
तू हक़ीक़त में मेहरबां होगी

Toward an Additional Social Order

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